अनुराग कश्यप: सिनेमा के विद्रोही बेटे




"साइन, साइन, साइन! ऐसे साइन मत करो यार!"
घर का माहौल खुशनुमा था। टेलीविजन पर "दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे" चल रही थी, जिसके हर संवाद पर घरवाले हँस रहे थे। लेकिन मैं नहीं हँस रहा था। मेरे दिमाग में बस एक ही सवाल घूम रहा था, इस साइन का क्या मतलब है?
"ये साइन कौन सा है, पापा?"
मैंने पापा से पूछा।
"ये तो राजकपूर साहब का साइन है बेटा।" उन्होंने जवाब दिया।
तब मुझे राजकपूर की फिल्में देखने का चस्का लगा। मैं उनकी हर फिल्म देख डालता। उनके गाने सुनता और उनके संवाद रट लेता। और फिर हुआ कुछ ऐसा, जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी। मैं 12 साल का था, जब मैंने "कोरा कागज़" फिल्म देखी।
"ये तो वैसी ही है, जैसी मैं बनाना चाहता हूँ!"
मुझे महसूस हुआ कि मेरा जुनून सिर्फ राजकपूर की फिल्में देखना नहीं है, बल्कि खुद फिल्में बनाना है। लेकिन मेरे घर में सिनेमा को करियर के तौर पर कभी नहीं देखा जाता था। इसलिए मैंने अपनी इच्छा को दिल में छिपा लिया।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मेरी इच्छा भी बढ़ती गई। मैंने थिएटर जॉइन किया, नाटक किए, लेकिन दिल में तो फिल्मों को लेकर ही एक बेचैनी थी। और फिर, एक दिन, मैंने फैसला ले लिया।
"मैं फिल्म बनाऊँगा!"
मैंने अपने घरवालों को अपनी बात बताई। पहले तो वो चौंक गए, लेकिन फिर उन्होंने मेरा सपोर्ट किया। और मैं अपने जुनून के पीछे भागा।
साल था 1998, जब मेरी पहली फिल्म "सत्या" रिलीज़ हुई। फिल्म को लोगों ने खूब सराहा और मुझे एक फिल्मकार के तौर पर पहचान मिली। "सत्या" के बाद, मैंने कई और फिल्में बनाईं, जैसे "ब्लैक फ्राइडे", "गैंग्स ऑफ़ वासेपुर", "लुटेरा" और "मुकद्दर का सिकंदर"।
मेरी फिल्मों की खासियत ये होती है कि वो समाज की सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट के दिखाती हैं। मैं उन कहानियों को बताना चाहता हूँ, जिन पर बात करना लोग ज़रूरी समझते हैं।
"ये तो महज़ एक शुरुआत है। मैं अभी बहुत सारी कहानियाँ कहना चाहता हूँ।"
मैं एक विद्रोही हूँ, जो सिनेमा के ज़रिए समाज को बदलना चाहता हूँ। मैं वो फिल्में बनाना चाहता हूँ, जो लोगों को सोचने पर मजबूर करें। जो उन्हें अपनी ज़िंदगी पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित करें।
मेरा सफर आसान नहीं रहा है। कई बार मेरे ख़िलाफ़ भी बातें हुई हैं, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। क्योंकि मेरा मानना है कि सिनेमा एक ताकतवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल समाज को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है।
और मैं इस हथियार को तब तक इस्तेमाल करता रहूँगा, जब तक कि मैं ज़िंदा हूँ।