भारत के इतिहास में अनगिनत वीर और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी है। आज हम बात करेंगे बंगाल की एक ऐसी वीरांगना की, जिसने मात्र 17 वर्ष की उम्र में देश के लिए अपनी जान दे दी। उनका नाम था कनकलता बरुआ।
कनकलता का जन्म 23 दिसंबर, 1924 को असम के बरपेटा जिले के बरुआ गाँव में हुआ था। उनके पिता एक शिक्षक थे और माँ गृहिणी। कनकलता बचपन से ही बहुत होनहार और साहसी थीं। वे पढ़ाई में बहुत अच्छी थीं और उन्हें खेलकूद में भी रूची थी।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कनकलता बहुत प्रभावित हुईं। वे महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित थीं। उन्होंने असम के छात्र आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई।
9 सितंबर, 1942 को, कनकलता ने अपने कुछ साथियों के साथ बंगाल के गोवालपारा जिले के गोदालुमारी चाय बागान पर तिरंगा फहराने का फैसला किया। अंग्रेजों ने पहले ही ध्वजारोहण पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन कनकलता और उनके साथियों ने इस प्रतिबंध का उल्लंघन करने का फैसला किया।
जब कनकलता और उनके साथी चाय बागान पर तिरंगा फहरा रहे थे, तो अंग्रेज पुलिस वहाँ पहुँच गई। पुलिस ने उन्हें चेतावनी दी कि वे ध्वजारोहण बंद कर दें, लेकिन वे नहीं माने। इसके बाद, पुलिस ने गोली चला दी, जिससे कनकलता के सीने में गोली लगी।
कनकलता को तुरंत अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी शहादत ने पूरे भारत को झकझोर दिया। उन्हें बंगाल की वीरांगना के रूप में जाना जाने लगा।
कनकलता बरुआ की विरासत आज भी भारत में जीवित है। उनके नाम पर कई स्कूल, कॉलेज और सड़कें हैं। उन्हें उनकी वीरता और बलिदान के लिए याद किया जाता है। उनकी कहानी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में वीरता और बलिदान की कई कहानियों में से एक है।
कनकलता बरुआ की कहानी हम सभी के लिए एक प्रेरणा है। यह हमें याद दिलाती है कि हमारे देशवासियों ने हमारी स्वतंत्रता के लिए कितना बलिदान दिया है। हमें हमेशा उनकी शहादत को याद रखना चाहिए और उनके दिखाए रास्ते पर चलना चाहिए।